1 जनवरी 1818 को भिमा कोरेगांव की लड़ाई (Battle of Bhima Koregaon) एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण घटना है, जिसका असर आज भी भारतीय समाज में महसूस किया जाता है। यह लड़ाई मराठा और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेनाओं के बीच लड़ी गई थी, और इसमें विशेष रूप से ब्रिटिश आर्मी के दलित सैनिकों की भूमिका महत्वपूर्ण थी। इस लड़ाई की विजेता ब्रिटिश सेना थी, और यह दलित समाज के लिए एक शौर्य दिवस के रूप में मनाया जाता है।
1. भिमा कोरेगांव की लड़ाई का पृष्ठभूमि
भिमा कोरेगांव (Bhima Koregaon) पुणे के पास एक गांव है, जो आज महाराष्ट्र राज्य में स्थित है। यह गांव ऐतिहासिक रूप से उस समय की युद्धभूमि के रूप में जाना जाता है, जहां 1818 में एक निर्णायक लड़ाई लड़ी गई थी। इस समय ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का भारतीय उपमहाद्वीप में विस्तार हो चुका था और मराठा साम्राज्य का पतन हो रहा था।
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी, जो उस समय भारतीय उपमहाद्वीप में प्रमुख शक्ति बन चुकी थी, ने मराठों को हराने के लिए विभिन्न रणनीतियों का पालन किया था। मराठा साम्राज्य का नेतृत्व पेशवा बाजीराव द्वितीय कर रहे थे, और उनकी सेना मराठा साम्राज्य की प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए ब्रिटिश सेना से लड़ रही थी।
2. लड़ाई का कारण और संघर्ष
भिमा कोरेगांव की लड़ाई का मुख्य कारण था मराठा साम्राज्य का विरोध करने वाली ब्रिटिश सेना के साथ संघर्ष। यह लड़ाई पेशवा बाजीराव द्वितीय की सेना और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के सैन्य दल के बीच हुई थी।
ब्रिटिश सेना में एक महत्वपूर्ण हिस्सा भारतीय सैनिकों का था, जिनमें अधिकतर दलित (अछूत) जातियों के लोग शामिल थे। ये सैनिक सपाही के रूप में ब्रिटिश आर्मी में भर्ती हुए थे। ब्रिटिश सेना ने इन सैनिकों को अच्छी ट्रेनिंग दी थी और उनका उपयोग अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए किया था।
दूसरी ओर, मराठा सेना में ऊंची जातियों के लोग अधिक थे और इनकी रणनीतियों ने युद्ध को और भी चुनौतीपूर्ण बना दिया था।
3. युद्ध की घटना
लड़ाई 1 जनवरी 1818 को भिमा कोरेगांव के पास लड़ी गई। ब्रिटिश सेना का नेतृत्व *ब्रिगेडियर जनरल सी.आर. काॅने (General C. R. D. Smith) कर रहे थे, जबकि मराठा सेना की कमान सागर राव और अन्य मराठा जनरलों के पास थी।
ब्रिटिश सेना की एक महत्वपूर्ण ताकत उनके दलित सैनिकों की विशेष टुकड़ी थी, जिसे “पुरीजा” (Pride of the British Army) कहा जाता था। इस टुकड़ी में विशेष रूप से महार जाति के सैनिक शामिल थे, जो समाज में नीच माने जाते थे। लेकिन इन सैनिकों ने ब्रिटिश आर्मी में भर्ती होकर अपनी वीरता साबित की थी और लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
ब्रिटिश सेना की संख्या मराठों की तुलना में बहुत कम थी, फिर भी उन्होंने अपनी श्रेष्ठ रणनीति और प्रशिक्षित सैनिकों के कारण यह लड़ाई जीत ली।
4. लड़ाई का परिणाम
इस युद्ध में ब्रिटिश सेना ने अपनी छोटी लेकिन प्रभावशाली सेना से मराठों को हराया। मराठों की सेना में लगभग 28,000 सैनिक थे, जबकि ब्रिटिश सेना की संख्या करीब 500 सैनिकों की थी, जिसमें दलित सैनिकों की टुकड़ी का महत्वपूर्ण योगदान था।
यह लड़ाई ब्रिटिश साम्राज्य की जीत के रूप में मानी गई, लेकिन इसके परिणामस्वरूप एक सांस्कृतिक और राजनीतिक बदलाव आया।
5. दलित समाज का शौर्य
भिमा कोरेगांव की लड़ाई की विशेषता यह थी कि इसमें ब्रिटिश सेना में शामिल दलित सैनिकों ने अपनी वीरता का प्रदर्शन किया। इस संघर्ष ने भारतीय समाज में जातिवाद और सामाजिक असमानता के खिलाफ एक नया संदेश दिया।
दलित समाज, जो पहले उच्च जातियों के द्वारा बहिष्कृत और अपमानित था, ने इस लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाकर खुद को साबित किया। उनके शौर्य और बलिदान ने उन्हें एक नया सम्मान दिलवाया। यह दिन शौर्य दिवस के रूप में मनाया जाता है, और हर साल 1 जनवरी को दलित समुदाय के लोग भिमा कोरेगांव में इकट्ठा होते हैं, जहां वे इस लड़ाई की याद में श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
6. भिमा कोरेगांव की लड़ाई का सांस्कृतिक महत्व
भिमा कोरेगांव की लड़ाई का सांस्कृतिक और सामाजिक प्रभाव बहुत गहरा था:
- दलित अधिकारों की पहचान: यह लड़ाई दलित समाज के लिए एक प्रतीक बन गई, जो उन्हें अपनी पहचान और अधिकारों के लिए संघर्ष करने का प्रोत्साहन देती है।
- भिमा कोरेगांव स्मारक: आज भिमा कोरेगांव में एक स्मारक है, जिसे विजय स्तंभ (Victory Pillar) कहा जाता है, जो इस लड़ाई और दलित सैनिकों की वीरता का प्रतीक है। यह स्मारक 1818 में हुई लड़ाई के शहीद सैनिकों की याद में बनाया गया था।
- राजनीतिक और सामाजिक संघर्ष: भिमा कोरेगांव की लड़ाई ने भारतीय समाज में जातिवाद और सामाजिक भेदभाव के खिलाफ संघर्ष को प्रेरित किया। इस दिन के महत्व को बढ़ाने में प्रमुख भूमिका डॉ. भीमराव अंबेडकर ने निभाई, जिन्होंने इस लड़ाई की स्मृति में 1927 में भिमा कोरेगांव का दौरा किया था।
1 जनवरी 1818 को भिमा कोरेगांव की लड़ाई केवल एक सैन्य संघर्ष नहीं थी, बल्कि यह सामाजिक न्याय और समानता के लिए एक महत्वपूर्ण घटना बन गई। यह घटना आज भी दलित समाज द्वारा शौर्य दिवस के रूप में मनाई जाती है, और यह भारतीय समाज में जातिवाद के खिलाफ संघर्ष का प्रतीक बनी हुई है।